उत्तराखंड भारत का एक प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर राज्य है, जिसका पर्वों और उत्सवों से गहरा संबंध है। यहाँ के लोग अपने संस्कृति और परंपराओं के प्रति गहरा समर्पण रखते हैं। उत्तराखंड का जिक्र वैदिक काल से होता आ रहा है, इस लिए आज भी उत्तराखंड में रामायण और महाभारत काल की सेकड़ों विधाएं मौजूद है। जिसमे से कई विधाएं विलुप्त हो गई है और कई विलुप्त होने की कगार में है, लेकिन कई लोगों के अथक प्रयासों के द्वारा कई विधाओं के संरक्षण और विकास के लिए अभूतपूर्व काम किया गया है, और उत्तराखंड को अलग पहचान दिलाई है। चाहे वह विश्व की सबसे बड़ी पैदल यात्रा नंदा राजजात यात्रा हो या फिर चंपावत के देवीधुरा में प्रसिद्ध बग्वाल युद्ध। ऐसी ही एक लोक सांस्कृतिक रम्माण पर्व है। यह उत्तराखंड का एक प्रमुख धार्मिक उत्सव है, जिसे परंपरागत तरीके से मनाया जाता है।
रम्माण पर्व क्या है ?
रम्माण महोत्सव उत्तराखंड के चमोली जिले के सलूड़ गांव में हर अप्रैल (बैशाख) में आयोजित होने वाला एक पारंपरिक त्यौहार है। रम्माण सलूड़ की 500 वर्ष पुरानी परम्परा है। रम्माण इस गांव के अलावा डुंगरी, बरोशी, सेलांग गांवों में भी आयोजित किया जाता है । जिसमें सलूड़ गांव का रम्माण अधिक लोकप्रिय है। रम्माण का मेला 11 से 13 दिन के बीच लगता है जिसमें विविध कार्यक्रम, पूजा और अनुष्ठान आयोजित किए जाते हैं। इसमें सामूहिक पूजा, देवयात्रा, लोक नाटक, नृत्य, गायन, बाज़ार और अन्य रंगारंग गतिविधियाँ का आयोजन किया जाता है । यह गाँव के सुरक्षात्मक देवता, भूमियाल का सम्मान करने वाला एक अनुष्ठान है और गाँव के परिवारों और देवताओं से मिलने का अवसर भी मिलता है।
रम्माण नाम क्यूँ पड़ा ?
रम्माण उत्सव के अंतिम दिन लोकशैली में रामायण के कुछ प्रसंगों को प्रस्तुत किया जाता है। रामायण के इन प्रसंगों की प्रस्तुति के कारण इसे रम्माण के नाम से जाना जाता है। यह उत्सव अत्यधिक जटिल आचरण वाला होता है, जहां महाकाव्य रामकथा और विभिन्न जनप्रवादों के विभिन्न संस्करणों का पाठ किया जाता है और मुखौटों के साथ कई गीत और नृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं।
रम्माण में मुखौटा नृत्यशैली का प्रयोग किया जाता है, जिसे पत्तर कहते हैं। रम्माण मेले में भूमि क्षेत्रपाल की पूजा अर्चना और 18 पत्तर का नृत्य और 18 तालों पर राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान का नृत्य होता है। इसमें दो प्रकार के मुखौटों का प्रयोग होता है, द्यो पत्तर (देवताओं के मुखोटे) और ख्यलारी पत्तर (मनोरंजन वाले मुखौटे)।
रम्माण के विशेष नृत्य :
1. बण्या- बण्याण : यह नृत्य तिब्बत के व्यापारियों पर आधारित, जिस में उन पर हए चोरी व लुटपाट की घटना के बारे में नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करते है।
2. म्योर – मुरैण : यह नृत्य पहाड़ों में होने वाली दैनिक परेशानीयों का चित्रण होता है।
3. माल- मल्ल: इस नृत्य में स्थानीय लोग व गोरखायों के बीच हुए युद्ध का चित्रण है।
4. कुरू जोगी: यह एक प्रकार का हास्य नृत्य है।
सलुड़ – डूंग्रा से विश्व धरोहर तक का सफर :
वर्ष 2008 में इंदिरा गाँधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स ने इसका अभिलेखीकरण किया। 40 लोगों की टीम ने दिल्ली में इसकी प्रस्तुति दी और भारत सरकार ने इसे यूनेस्को को भेज दिया। अबुधाबी बैठक में संयुक्त राष्ट्र की यूनेस्को संस्था ने 02 अक्टूबर 2009 में रम्माण को वैश्विक सांस्कृतिक विरासत के रूप में नामित किया। इस उपलब्धि का श्रेय गढ़वाल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ‘दाताराम पुरोहित’, प्रसिद्ध फोटोग्राफर ‘अरविंद मृदुल’, रम्माण लोक गायक ‘थान सिंह नेगी’ और डॉ. कुशल सिंह भंडारी को दिया जाता है।
यूनेस्को व संस्कृति विभाग के सहयोग से आज गाँव में रम्माण से जुड़े पौराणिक एवं पारंपरिक मुखौटों के लिए एक विशाल म्यूजियम तैयार किया जा रहा है। इस म्यूजियम में रम्माण से जुड़े अन्य पौराणिक वस्तुओं को भी संग्रहीत किया जाएगा।
रम्माण उत्सव उत्तराखंड के चमोली जनपद के विकासखंड जोशीमठ में पैनखंडा पट्टी के सलूड़ ,डुंग्रा तथा सेलंग आदि गावों में प्रतिवर्ष अप्रैल (बैशाख ) के महीने में आयोजित किया जाता है। रम्माण सलूड़ की 500 वर्ष पुरानी परम्परा है।
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