
भारत को अपनी आजादी के 77 साल पूरे हो चुके हैं। इस आजादी को हासिल करने के लिए हमारे देश को लंबा संघर्ष करना पड़ा। 1757 में प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेजों ने भारत में राजनीतिक शक्ति प्राप्त कर ली। इसी समय अंग्रेज भारत आये और लगभग 200 वर्षों तक यहाँ शासन किया। उत्तर-पश्चिम भारत अंग्रेजों के लिए पहला गंतव्य था और 1856 तक उन्होंने सत्ता पर अपनी मजबूत पकड़ स्थापित कर ली थी। इसके कारण 1857 का विद्रोह हुआ और इसे ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ पहला संगठित आंदोलन माना जाता है।
आज हम जिस स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे हैं, उसमें गुलामी की जंजीरों से मुक्त होने के लिए न जाने कितने क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी, सीने पर गोलियाँ खाईं और फाँसी पर चढ़े। भारतीय स्वाधीनता प्राप्ति आंदोलन में उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र के वर्तमान जनपद चम्पावत का अप्रतिम योगदान रहा है। उत्तराखंड के क्रांतिकारियों में से एक हैं कालू सिंह मेहरा.
उत्तराखंड के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी : कालू सिंह महरा

स्थानीय इतिहास के आधार पर माना जाता है की लोहाघाट के निकटवर्ती सुई-बिसुंग इलाके के लोगों की भारतीय स्वाधीनता संग्राम में बहुत ही सक्रिय भूमिका रही थी जिसका नेतृत्व कालू सिंह महरा और उनके क्रांतिकारी साथियों ने प्रमुखता से किया था।
कालू सिंह महरा का जन्म कुमाऊँ के चंपावत जिले के लोहाघाट के थुआ महरा गाँव में 1831 में गुआ था। कालू महरा एक सामान्य परिवार के थे। अपनी युवा अवस्था में ही कालू महरा ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत शुरू कर दी थी। वे आजादी के आंदोलन को संगठित करने के लिए काली कुमाऊँ के इलाके में सक्रिय हुए।
उत्तराखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन 1815 में हुआ, इसे पहले यहाँ गोरखों का शासन था। अंग्रेजों ने गोरखों से अधिकार छीनने के बाद कुमाऊँ और गढ़वाल के आधे हिस्से (वर्तमान पौड़ी जिला और चमोली जिला )को मिलाकर कुमाऊँ कमिश्ररी में शामिल कर लिया था।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में काली कुमाऊँ की भूमिका इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में अंकित है। ब्रिटिश सरकार इस क्षेत्र से किसी भी विद्रोह के लिए तैयार नहीं थी। कालू सिंह महरा के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ काली कुमाऊं के संघर्ष ने ब्रिटिश सरकार को आश्चर्यचकित कर दिया। कालू महरा ने काली कुमाऊँ क्षेत्र की जनता को संगठित करके अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह प्रारम्भ कर दिया। इस विद्रोह के नायक कालू महरा और उनके अभिन्न सहयोगियों ने देश की आजादी को अपनी जान से ज्यादा समझा और आंदोलन में शामिल हो गये। सभी के प्रारंभिक प्रशिक्षण के बाद, लोहाघाट के चांदमारी स्थित ब्रिटिश बैरकों पर हमला हुआ। इस आश्चर्यजनक हमले के बाद ब्रिटिश सैनिक और
अंग्रेज अधिकारी भाग खड़े हुए और स्वतंत्रता सेनानियों ने इन ब्रिटिश शासन बैरकों में आग लगा दी।
पहली लड़ाई में सफलता के बाद, काली कुमाऊँ की इस लड़ाई में स्थानीय लोगों के सहयोग का उपयोग करते हुए, कालू महरा और उनके लोगों ने लड़ाई तेज कर दी, ताकि ब्रिटिश सेना को नैनीताल और अल्मोडा से काली कुमाऊँ की ओर बढ़ने से रोका जा सके। कालू महरा के नेतृत्व में यह सेना अब बस्तिया की ओर आगे बढ़ने लगी और यहां उसे रास्ते में छिपे हथियारों और धन के साथ आगे बढ़ना था। लेकिन अमोड़ी के नजदीक बसे किरमौली गांव में छिपाए गए हथियारों और धन के बारे में किसी जासूस ने अंग्रेजों को पहले ही सूचना दे दी थी।
कालू मेहरा और उनके दल के यहाँ पहुँचने से पहले ही ब्रिटिश अधिकारियों वहाँ कब्जा कर लिया था और इस तरह भीतरघात की वजह से सफलतापूर्वक आगे बढ़ रहा काली कुमाऊँ की जनता का यह आजादी अभियान बस्तिया में बिखर गया। कालू महरा को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। कालू महरा 52 जेलों में ले जाया गया।
उनके दो सहायकों आनंद सिंह फर्टियाल और बिशन सिंह करायत को लोहाघाट के चांदमारी में अंग्रेजों ने गोली मार दी थी।
अंग्रेजों का कहर यहाँ भी खतम नहीं हुआ और अस्सी साल बाद 1937 तक काली कुमाऊँ से एक भी व्यक्ति सेना में भर्ती नहीं किया गया और इतना ही नहीं अंग्रेजों ने यहाँ एक भी विकास कार्य नहीं होने दिए। कालू महरा के घर पर हमला बोलकर उसे जला दिया गया।

कालू मेहरा और उनके साथियों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया और एक के बाद एक युवा स्वतंत्रता की इस लडाई में बढ़ चढ़कर अपना योगदान देने लगे। यूँ तो उत्तराखंड की इस पावन धरती से कई वीर पुत्र-पुत्रियाँ जन्में लेकिन उत्तराखंड के पहले स्वतंत्रता सेनानी की उपाधि से कालू सिंह मेहरा को नवाजा गया। आज भी उतराखंडी अपने वीर सपूतों की बलिदान गाथाएँ अपने बच्चों को सुनाते हैं और उनकी तरह बनने की सीख देते हैं।
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